भारत की यह एक बहुत ही बड़ी विडंबना हैकि यहां हम बालिकाओं का तो कन्या-पूजन जैसे धार्मिक अवसरों पर पूजन करते हैं लेकिन जब खुद के घर बालिका जन्म लेती है तो माहौल मातम सा बना लेते हैं, यह हालात भारत के हर हिस्से में है. हरियाणा और राजस्थान के हालात तो इतने खराब हैं कि यहां बच्चियों को अभिशाप तक माना जाता है. कन्याओं को अभिशाप मानने वाले यह भूल जाते हैं कि वह उस देश के वासी हैंजहां देवी दुर्गा को कन्या रूप में पूजने की प्रथा है, वह भूल जाते हैं कि वह उस देश के नागरिक हैं जहां रानी लक्ष्मीबाई जैसी विरांगनाओं ने समाज के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, इतना ही नहीं भारत देश की ही राजनीति की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री का रुतबा किसी पुरुष को नहीं अपितु माननीया स्व. इंदिरा गांधी जी को हासिल है जिन्होंने कई अवसरों पर देश के सामने एक दृढ़-संक्लपी नेतृत्व प्रदान किया था. जो लोग कन्याओं को बोझ मानते हैं उन्हें ही सही रास्ते पर लाने और कन्या-शक्ति को जनता के सामने लाने के लिए हर साल 24 जनवरी को राष्ट्रीय कन्या दिवस मनाया जाता है. राष्ट्रीय कन्या दिवस राष्ट्रीय कन्या दिवस की शुरुआत साल 2009 से की गई. सरकार ने इसके लिए 24 जनवरी का दिन चुना क्यूंकि यही वह दिन था जब 1966 में इंदिरा गांधी जी ने भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी. इस अवसर पर सरकार की और से कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. महिला एवं बाल विकास विभाग अपने स्तर पर समाज में बाल कन्याओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक बनाने के लिए विभिन्न क्रियाकलाप करती है. आज महिलाएंआज की बालिका जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रही है चाहे वो क्षेत्र खेल हो या राजनीति, घर हो या उद्योग, खेलों की दुनिया में अगर साइना नेहवाल जैसी लड़कियां अपना हौशला दिखा रही हैं तो वहीं कई अन्य स्तरों पर विभिन्न लड़कियां समाज की मुख्यधारा में अपना रुतबा बढ़ा रही हैं. स्वस्थ और शिक्षित कन्याएं आने वाले समय की मुख्य जरूरत है क्यूंकि यहीं आने वाले समाज को सही राह दिखा सकती हैं. एक बेहतरीन पत्नी, मां, कर्मचारी, नेता या अन्य क्षेत्र में यह अपने योगदान से देश के विकास में सहायक साबित होंगी. लेकिन यह सभी तभी संभव होगा जब देश में कन्या जन्मदर में इजाफा होगा. भारत में अगर लिंग अनुपात देखा जाएतो बेहद निराशाजनक है. 2011 में हुई जनगणना के हिसाब से भारत में 1000 पुरुषों पर 940 है. यह आंकड़े राष्ट्रीय स्तर पर औसतन हैं. अगर हम राजस्थान और हरियाणा जैसे स्थानों पर नजर मारें तो यहां हालात बेहद भयावह हैं. पंजाब में 893, राजस्थान में 877 और चढ़ीगढ़ में तो लिंग अनुपात 818 का है. भारत में कन्या भ्रूण हत्याएं लैंसेट पत्रिका (Lancet journal) में छपे एक 16 6, १७ अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार वर्ष 1980 से 2010 के बीच इस तरह के गर्भपातों (Girl Child Abortion) की संख्या 42 लाख से एक करोड़ 21 लाख के बीच रही है. साथ ही 'सेंटर फॉर सोशल रिसर्च' का भ्रूण हत्या (ळपतस बेपसक |इवतजपवद) के कारण एक करोड़ से अधिक बच्चियां जन्म नहीं ले सकीं. वर्ष 2001 की जनगणना कहती है कि दिल्ली में हर एक हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 865 थी. वहीं, हरियाणा के अंबाला में एक हजार पुरुषों पर 784 महिलाएं और कुरुक्षेत्र में एक हजार पुरुषों पर 770 महिलाएं थीं. आखिर क्यु होती हैं कन्या भ्रूण हत्याएं भारत में एक मानसिकता है कि बेटे संपति हैं और बेटियां कर्ज. भारतीय परंपरा में हम सिर्फ संपति चाहते हैं, कर्ज नहीं. साथ ही पैसा भीएक ऐसा कारण है जिसकी वजह से लाखों कन्याएं जन्म लेने से पहले ही कोख में मार दीजाती हैं. वर्तमान वैश्वीकरण के युग में भी लड़कियां माता पिता पर बोझ हैं, क्योंकि उनके विवाह के लिए महंगा दहेज देना होता है. बालिकाओं की हत्या के लिए दहेज प्रणाली एक ऐसी सांस्कृतिक परंपरा है जो सबसे बड़ा कारण ऐसा हो तो शायद रुक जाए कन्याओं कीकन्या भ्रूण हत्या जटिल मसला है. असल में इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी स्त्रियों की जागरूकता ही है, क्योंकि इस संदर्भ में निर्णय तो स्त्री को ही लेना होता है. दूसरी हत्या परेशानी कानून-व्यवस्था के स्तर पर है. भारत में इस समस्या से निबटना बहुत मुश्किल है, पर अगर स्त्रियां तय कर लें तो नामुमकिन तो नहीं ही है. साथ ही शिक्षा व्यवस्था ऐसी बनानी होगी कि बच्चों को लड़के-लड़की के बीच किसी तरह के भेदभाव का आभास न हो. वे एक-दूसरे को समान समझें और वैसा ही व्यवहार करें. बड़ी मुश्किल है राहें लेकिन कई मामलों में यह भी देखने में आता है कि कई परिजन अपनी बच्चियों को पैदा होने के बाद सही माहौल नहीं देते. बालिकाओं को शुरु से ही घर के कार्य और छोटे भाई संभालने के कार्य प्राथमिकता से करने की हिदायत दी जाती है. जिस उम्र में उन्हें सिर्फ पढ़ाई और बचपन की मस्तियों की फिक्र करनी चाहिए उसमें उन्हें समाज के रिवाजों की रट लगवाई जाती है. ऐसे में अगर बालिकाएं आगे बढ़ना भी चाहे तो कैसे? और अगर घर से सही माहौल मिल भी गया तो समाज की उस गंदी नजर से वह खुद को बचाने के लिए संघर्ष करती हैं जो बालिकाओं को अपनी हवश को मिटाने का सबसे आसान मोहरा मानते हैं. राहें चाहें कितनी भी मुश्किल हों लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर रात के बाद सवेरा होता ही है. आज चाहे बालिकाओं के विकास के कार्यों में हजारों अड़चनें हो लेकिन एक समय के बाद अगर सरकार ने सही कदम उठाएं तो हालात अवश्य बदलेंगे और आने वाला समय भारत में महिला सशक्तिकरण की नई इबारत लिखेगा जिसमें आज की बालिकाओं की बेहद अहम भूमिका होगीI
बालिका - भविष्य का आभूषण